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05 दिसंबर 2021

Hiranyagarbh Pottli Ras | हिरण्यगर्भ पोट्टली रस

 

Hiranyagarbh Pottli Ras

यह एक शास्त्रीय आयुर्वेदिक औषधि है जिसका वर्णन 'भैषज्य रत्नावली' नामक आयुर्वेदिक ग्रन्थ में मिलता है. यह स्वर्णयुक्त रसायन औषधि है, तो आईये इसके गुण-धर्म, घटक, निर्माण विधि और उपयोग के बारे सबकुछ विस्तार से जानते हैं - 

हिरण्यगर्भ पोट्टली रस 

इसके घटक या इनग्रीडेंट की बात करें तो इसके निर्माण के लिए चाहिए होता है शुद्ध पारा 10 ग्राम, स्वर्ण भस्म 20 ग्राम, शुद्ध गंधक और कपर्दक भस्म प्रत्येक 30 ग्राम, मोती भस्म 40 ग्राम, शँख भस्म 40 ग्राम और टंकण भस्म 2.5 ग्राम 

हिरण्यगर्भ पोट्टली रस निर्माण विधि 

आपकी जानकारी के लिए निर्माण विधि बता रहा हूँ, सबके लिए इसका निर्माण करना संभव नहीं-

सबसे पहले शुद्ध पारा और शुद्ध गंधक को खरलकर कज्जली बनाकर दुसरे भस्मों को मिक्स कर निम्बू के रस में घुटाई किया जाता है. इसके बाद इसकी टिकिया बनाकर सुखाकर सम्पुट में कपड़मिट्टी कर 'गजपुट' की अग्नि दी जाती है. बाद में इसे खरलकर रख लिया जाता है. यही हिरण्यगर्भ पोट्टली रस रस कहलाता है. 

हिरण्यगर्भ पोट्टली रस की मात्रा और सेवन विधि 

125 मिलीग्राम से 250 मिलीग्राम तक काली मिर्च और विषम मात्रा में घी और शहद के साथ. या वैद्य जी की सलाह से रोगानुसार उचित अनुपान के साथ ही इसका सेवन करना चाहिए.

हिरण्यगर्भ पोट्टली रस के गुण 

यह विशेष रूप से वात-कफ़ नाशक है. उचित अनुपान से सभी रोगों में इसका प्रयोग कर सकते हैं. मूल ग्रन्थ के अनुसार यह रसायन अग्निमान्ध, संग्रहणी, श्वास, कास, अर्श, पीनस, अतिसार, पांडू, शोथ, उदररोग, विषम ज्वर, यकृत-प्लीहा रोग नाशक है. सन्निपातिक रोगों में अमृत के सामान गुणकारी कहा गया  है. 

हिरण्यगर्भ पोट्टली रस के फ़ायदे 

शरीर में वात और कफ़ की वृद्धि होने या विकृति होने पर इसका सफल प्रयोग कर सकते हैं. 

जैसे कफ़ की वृद्धि होने पर भूख न लगना, पाचन की कमजोरी, आलस्य, कब्ज़, उल्टी जैसा लगना, खाने में रूचि नहीं होना जैसे लक्षण होने पर इसके सेवन से लाभ होता है. 

अतिसार या दस्त और संग्रहणी में इसके सेवन से विशेष लाभ होता है. आँतों पर इसका अच्छा प्रभाव होता है, आँतों को मज़बूत बनाता है. 

टी. बी., शारीरिक शक्ति की कमज़ोरी में भी इसका प्रयोग कर सकते हैं. 

चूँकि यह स्वर्णयुक्त रसायन औषधि है तो यह शरीर के रोगों को दूर करने में समर्थ है, बस रोग और रोगी की दशा के अनुसार उचित अनुपान और औषधियों के साथ वैद्यगण इसका प्रयोग कराते हैं. 

इसे स्थानीय वैद्य जी की सलाह से और उनकी देख-रेख में ही सेवन करें. 



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